प्रेमचंद

"मंगलसूत्र"

1

'मंगल-सूत्र' प्रेमचंद की अंतिम और अपूर्ण रचना है, जिसे वे पूर्ण कर सकें, जब विधाता ने उन्हें बुला लियाइसका बहुत थोड़ा अंश ही वे लिख पाए थेयह 'गोदान' के तुरंत बाद की कृति है, जिसमें लेखक अपनी शक्तियों के चरमोत्कर्ष पर थानिस्संदेह यह रचना बहुत महान होती जैसी की प्रारंभिक पृष्ठों से ही पता चल जाता हैलेखक इस उपन्यास को अपने जीवन दर्शन का प्रतीक मान कर चला थाउनका कहना था कि इसकी संपूर्ण परिकल्पना उनके अपने जीवन पर आधारित थी-किन्हीं अर्थों में आप इसे एक आत्मकथात्मक उपन्यास मान सकते हैउन्होंने बताया था कि इस कृति के द्वारा वे प्रमाणित करेंगे कि आदर्शों पर चल कर भी कही माने वाली भौतिक सफलता प्राप्त की या सकती है-या कम से कम उसका आत्म-संतोष उपलब्ध किया जा सकता है, जो अंततोगत्वा जीवन की एकमात्र सार्थकता हैसफलता की प्राप्ति के लिए जीवन में असत्य, नैतिक पतन और नृशंस मानवहीनता तनिक भी अनिवार्य नहीं हैऔर यह कि जिस सामान्य जीवन को जनसमूह निरादर और तिरस्कार की दृष्टि से देखता है, असल में वही उदात्त सार्थक और स्पृहणीय हैइस नैतिक और दार्शनिक सत्य के स्थापन को प्रेमचंद ने इस उपन्यास रचना का आधार बनायालेखक का अपना जीवन इस सत्य का सबसे प्रबल प्रमाण था और उन्होंने इस जीवन द्वारा यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया कि साहित्यकार एक आदर्श मानव होता है और उसका अस्तित्व देश-काल से निरपेक्षमानवता के लिए वह प्रकाशपुंज है जिसका आलोक कभी धूमिल नहीं होता


बड़े बेटे संतकुमार को वकील बनाकर, छोटे बेटे साधुकुमार को बीए. की डिग्री दिला कर और छोटी लड़की पंकजा के विवाह के लिए स्त्री के हाथों में पांच हजार रुपये नकद रख कर देवकुमार ने समझ लिया कि वह जमीन के कर्त्तव्य से मुक्त हो गए और जीवन में जो कुछ शेष रहा है, उसे ईश्वर चिन्तन को अर्पण कर सकते हैंआज चाहे कोई उन पर अपनी जायदाद को भोगविलास में उड़ा देने का इल्जाम लगाए, चाहे साहित्य के अनुष्ठान में लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनकी आत्मा विशाल थीयह असंभव था कि कोई उनसे मदद मांगे और निराश होभोग विलास जवानी का नशा था और जीवन भर वह उस क्षति की पूर्ति करते रहे, लेकिन साहित्य-सेवा के सिवा उन्हें और किसी काम में रुचि हुई और यहां धन कहां? हां यश, मिला और उनके आत्मसंतोष के लिए इतना काफी थासंचय में उनका विश्वास भी थासंभव है,परिस्थिति ने इस विश्वास को दृढ़ किया हो लेकिन उन्हें कभी संचय कर सकने का दुख नहीं हुआसम्मान के साथ अपना निर्वाह होता जाए, इससे ज्यादा वह और कुछ चाहते थेसाहित्य-रसिकों में जो एक अकड़ होती है, चाहे उसे शेखी ही क्यों कह लो वह उनमें भी थीकितने ही रईस और राजे इच्छुक थे वह उनके दरबार में

जाएं, अपनी रचनाएं सुनाएं उनको भेंट करें, लेकिन देवकुमार ने आत्म-सम्मान को कभी हाथ से जाने दियाकिसी ने बुलाया भी तो धन्यवाद देकर टाल गएइतना ही नहीं वह यह भी चाहते थे कि राजे और रईस मेरे द्वार पर आयें मेरी खुशामद करें, जो अनहोनी बात थीअपने कई मंदबुद्धि सहपाठियों को वकालत या दूसरे सीगों में धन के ढेर लगाते, जायदादें खरीदते नए-नए मकान बनवाते देखकर कभी-कभी उन्हें अपनी दशा पर खेद होता था, विशेषकर जब उनकी जन्मसंगिनी शैव्या गृहस्थी की चिन्ताओं से जल कर उन्हें कटु वचन सुनाने लगती थीपर अपनी रचना-कुटीर में कलम हाथ में लेकर बैठते ही वह सब कुछ भूल साहित्य-स्वर्ग में पहुंच जाते थेआत्म गौरव जाग उठता थासारा अवसाद और विषाद शांत हो जाता था


मगर इधर कुछ दिनों से साहित्य रचना में उनका अनुराग कुछ ठंडा होता जाता थाउन्हें कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि साहित्य-प्रेमियों को उनसे वह पहले की सी भक्ति नहीं रहीइधर उन्होंने जो दो पुस्तकें बड़े परिश्रम से लिखी थीं और जिनमें उन्होंने अपने जीवन के सारे अनुभव और कला की सारी प्रौढ़ता भर दी थी, उनका कुछ विशेष आदर हुआइसके पहले उनकी जो रचनाएं निकली थीं उन्होंने साहित्य संसार में हलचल मचा दी थीहर एक पत्र में उन पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाएं हुई थींसाहित्य-संस्थाओं ने उन्हें बधाइयां दी थीं, साहित्य मर्मज्ञों ने गुणग्रहाकता से भरे पत्र लिखे थेयद्यपि उन रचनाओं का देवकुमार की नजर में अब उतना आदर था, उनके भाव उन्हें भावुकता के दोष पूर्ण लगते थेशैली में भी कृत्रिमता और भारीपन था, पर जनता की दृष्टि में वही रचनाएं अब भी सर्वप्रिय थींइन नई कृतियों से बिना बुलाए मेहमान सा आदर किया गया मानो साहित्य-संसार संगठित हो कर उनका अनादर कर रहा होकुछ तो यों भी उनकी इच्छा विश्राम करने की रही थी, इस शीतलता ने उसे विचार को और दृढ़ कर दियाउनके दो-चार सच्चे साहित्यिक मित्रों ने इस तर्क से उनको ढाढस देने की चेष्टा की कि बड़ी भूख में मामूली भोजन भी जितना प्रिय लगता है, भूख कम हो जाने पर उससे कहीं रुचिकर पदार्थ भी उतने प्रिय नहीं लगते, पर इससे उन्हें आश्वासन हुआउनकेविचार में किसी साहित्यकार की सजीवता का यही प्रमाण था कि उसकी- रचनाओं की भूख जनता में बराबर बनी रहेजब वह भूखे रहे तो उसको क्षेत्र से प्रस्थान कर जाना चाहिएउन्हें केवल पंकजा के विवाह की चिन्ता थी और जब उन्हें एक प्रकाशक ने उनकी पिछली दोनों कृतियों के पांच हजार दे दिए तो उन्होंने इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझा और लेखनी उठा कर सदैव के लिए रख दीमगर इन छह महीनों में उन्हें बार-बार अनुभव हुआ कि उन्होंने वानप्रस्थ लेकर भी अपने को बन्धनों से छुड़ा पाएशैव्या के दुराग्रह की तो उन्हें कुछ ऐसी परवाह थीवह उन देवियों में थी, जिनका मन संसार से कभी नहीं छूटताउसे अब भी अपने परिवार पर शासन करने की लालसा बनी हुई थीऔर जब तक हाथ में पैसे भी हों, उसकी यह लालसा पूरी हो सकती थीजब देवकुमार अपने चालीस वर्ष के विवाहित जीवन में उसकी तृष्णा मिटा सके, तो अब उसका प्रयत्न करना वह पानी पीटने से कम व्यर्थ समझते थेदुःख उन्हें होता था संतकुमार के विचार और व्यवहार पर जो उनको घर की सम्पत्ति लुटा देने के लिए इस दशा में भी क्षमा करना चाहता थावह सम्पत्ति जो पचास साल पूर्व दस हजार में फेंक दी गई, आज होती तो उससे दस हजार साल की निकासी हो सकती थीउनकी जिस आराजी में दिन को सियार लोटते थे, वहां अब नगर का सब से गुलजार बाजार था, जिसकी जमीन सौ रुपये वर्ग फुट पर बिक रही

थी। संतकुमार का महत्वाकांक्षी मन रह-रह कर अपने पिता पर कुढ़ता रहता था। देवकुमार के पास पुत्र के स्वभाव में इतना अंतर कैसे हो गया, यह रहस्य था। देवकुमार के पास जरूरत से हमेशा कम रहा पर उनके हाथ सदैव खुले रहे। उनका सौन्दर्य भावना से जागा हुआ मन कभी कंचन की उपासना को जीवन लक्ष्य न बना सका। यह नहीं कि वह धन का मूल्य जानते न हों। मगर उनके मन में यह धारण जम गई थी कि जिस राष्ट्र में तीन चौथाई प्राणी भूखे मरते हों, वहां किसी एक को बहुत साधन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो। मगर संतकुमार की लिप्सा ऐसे नैतिक आदर्शों पर हंसती थी। कभी कभी तो निस्संकोच होकर वह यहां तक कह जाता था कि जब आपको साहित्य से प्रेम था तो गृहस्थ बनने का क्या हक था। आपने अपना जीवन तो चौपट किया ही, हमारा जीवन भी मिट्टी में मिला दिया। और अब आप वानप्रस्थ लेकर बैठे हैं, मानो आपके जीवन के सारे ऋण चुक गए।

जाड़ों के दिनथे। आठ बज चुके थे। सारा घर नाश्ते के लिए जमा हो गया था। पंकजा तख्त पर चाय और संतरे और सूखे मेवे तश्तरियों में रख दोनों भाइयों को उनके कमरों से बुलाने गई और एक क्षण में आकर साधुकुमार बैठ गया। ऊंचे कद का, सुगठित, रूपवान, गोरा, मीठे वचन बोलने कला सौम्य युवक था। जिसे केवल खाने और सैर-सपाटे से मतलब था। जो कुछ जुट जाए भरपेट खा लेता था और यार-दोस्तों में निकल जाता था।

शैव्या ने पूछा-सन्तू कहां रह गया? चाय ठंडी हो जाएगी तो कहेगा यह तो पानी है! बुला ले तो साधु, इसे जैसे खाने-पीने की भी छुट्टी नहीं मिलती।

साधु सिर झुका कर रह गया! संतकुमार से बोलते उसकी जान निकलती थी। शैव्या ने एक क्षण बाद फिर कहा-उसे भी क्यों नहीं बुला लेता?

साधु ने दबी जबान से कहा-नहीं, बिगड़ जाएंगे सवेरे-सवेरे तो मेरा सात दिन खराब हो जाएगा।

इतने में संतकुमार भी आ गया। शक्ल सूरत में छोटे भाई से मिलता-जुलता केवल शरीर का गठन उतना अच्छा न था। हां, मुख पर तेज और गर्व की झलक थी और मुख पर एक शिकायत सी बैठी हुई थी, जैसे कोई चीज उसे पसंद न आती हो।

तख्त पर बैठ कर चाय मुंह से लगाई और नाक सिकोड़ कर बोले-तू क्यों नहीं आती पंकजा? और पुष्पा कहां है? मैं कितनी बार कह चुका हूं कि नाश्ता, खाना पीना सब का एक साथ होना चाहिए।

शैव्या ने आंखे तरेर कर कहा-तुम लोग खा लो यह सब पीछे खा लेंगी। पंगत थोड़ी है कि सब एक साथ बैठें।

संतकुमार ने एक घूंट चाय पीकर कहा-वही पुराना लचर। कितनी बार कह चुका हूं कि उस पुराने लचर संकोच का जमाना नहीं रहा।

शैव्या ने मुंह बना कर कहा-सब एक साथ तो बैठें लेकिन पकाए कौन और परसे कौन? एक महाराज रक्खो पकाने के लिए, दूसरा परोसने के लिए जब वह ठाट निभेगा।

'तो महात्मा जी उसका इन्तजाम क्यों नहीं करते या वानप्रस्थ लेना ही जानते हैं।'

'उनको जो कुछ करना था, कर चुके। अब तुम्हें जो कुछ करना हो तुम करो।'

'जब पुरुषार्थ नहीं था तो हम लोगों को पढ़ाया-लिखाया क्यों? किसी देहात में ले जाकर छोड़ देते। हम अपनी खेती करते या मजूरी करते और पड़े रहते। तो यह घटराग ही क्यों पाला?'

'तुम उस वक्त न थे, सलाह किससे पूछते?'

संतकुमार ने कड़वा मुंह बनाए चाय पी, कुछ मेवे खाए, फिर साधुकुमार से बोले-तुम्हारी टीम कब बंबई जा रही है जी?

साधुकुमार ने गरदन झुकाए त्रस्त स्वर में कहा-परसों।

'तुमने नया सूट बनवाया?'

'मेरा पुराना सूट अभी काम दे सकता है।'

'काम तो सूट के न रहने पर भी चल सकता है। हम लोग तो नंगे पांव, धोती चढ़ाकर खेला करते थे। मगर जब एक आल इंडिया टीम में खेलने जा रहे हो, तो वैसा ठाट भी तो होना चाहिए। फटेहाल जाने से तो कहीं अच्छा न जाना। जब वहां लोग जानेंगे कि तुम महात्मा देवकुमार जी के सुपुत्र हो तो दिल में क्या कहेंगे?'

साधुकुमार ने कुछ जवाब न दिया। चुपचाप नाश्ता करके चला गया। वह अपने पिता की माली हालत जानता था और उन्हें संकट में न डालना चाहता था। अगर संतकुमार नए सूट की जरूरत समझते हैं तो बनवा क्यों नहीं देते? पिता के ऊपर भार डालने के लिए उसे क्यों मजबूर करते हैं?

साधु चला गया तो शैव्या ने आहत कंठ से कहा-जब उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि अब मेरा घर से कोई वास्ता नहीं और सब कुछ तुम्हारे ऊपर छोड़ दिया तो तुम क्यों उन पर गृहस्थी का भार डालते हो? अपने, सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार जैसे हो सका उन्होंने अपनी उम्र काट दी। जो कुछ वह नहीं कर सके या उनसे जो चूक हुई उन पर फिकरे कसना तुम्हारे मुंह से अच्छा नहीं लगता। अगर तुमने इस तरह उन्हें सताया तो मुझे डर है कि वह घर छोड़ कर कहीं अंतर्धान न हो जाएं। वह धन न कमा सकें, पर इतना तो तुम जानते ही हो कि वह जहां भी जाएंगे लोग उन्हें सिर और आंखों पर लेंगे।

शैव्या ने अब तक सदैव पति की भर्त्सना ही की थी। इस वक्त उसे उनकी वकालत करते देखकर संतकुमार मुस्करा पड़ा।

बोला-अगर उन्होंने ऐसा इरादा किया तो उनसे पहले मैं अंतर्धान हो जाऊंगा। मैं यह भार अपने सिर नहीं ले सकता। उन्हें इसको संभालने में मेरी मदद करनी होगी। उन्हें अपनी कमाई लुटाने का पूरा हक था, लेकिन बाप दादों की जायदाद को लुटाने का उन्हें कोई अधिकार न था। इसका उन्हें प्रायश्चित करना पड़ेगा। वह जायदाद हमें वापस करनी होगी। मैं खुद भी कुछ कानून जानता हूं। वकीलों, मजिस्ट्रेटों से भी सलाह कर चुका हूं। जायदाद वापस ली जा सकती है। अब मुझे यही देखना है कि इन्हें अपनी संतान प्यारी है या अपना महात्मापन।

यह कहता हुआ संतकुमार पंकजा से पान लेकर अपने कमरे में चला गया।

2

संतकुमार की स्त्री पुष्पा बिल्कुल फूल सी है, सुन्दर, नाजुक हल्की-फुल्की, लजाधुर, लेकिन एक नंबर की आत्माभिमानी है। एक-एक बात के लिए कई-कई दिन रूठी रह सकती है। और उसका रूठना भी सर्वथा नए डिजाइन का है। वह किसी से कुछ कहती नहीं, लड़ती नहीं, बिगड़ती नहीं, घर का सब काम काज उसी तन्मयता से करती है बल्कि और ज्यादा एकाग्रता से। बस, जिससे नाराज होती है उसकी ओर ताकती नहीं। वह जो कुछ कहेगा वह करेगी, वह जो कुछ पूछेगाजवाब देगी, वह जो कुछ मांगेगा उठा कर दे देगी, मगर बिना उसकी ओर ताके हुए। इधर कई दिन से संतकुमार से नाराज हो गई है और अपनी फिरी हुई आंखों से उसके सारे आघातों का सामना कर रही है।

संतकुमार ने स्नेह के साथ कहा-'आज शाम को चलना है न?'

पुष्पा ने सिर नीचा करके कहा-'जैसी तुम्हारी इच्छा।'

'चलोगी न?'

'तुम कहते हो तो क्यों न चलूंगी?'

'तुम्हारी क्या इच्छा है?'

'मेरी कोई इच्छा नहीं है।'

'आखिर किस बात पर नाराज हो?'

'किसी बात पर नहीं।'

'खैर, न बोलो लेकिन वह समस्या यों चुप्पी साधने से हल न होगी।'

पुष्पा के इस निरीह अस्त्र ने संतकुमार को बौखला डाला था। वह खूब झगड़कर उस विचार को शांत कर देना चाहता था। क्षमा मांगने पर तैयार था वैसी बात अब फिर मुंह से न निकालेगा लेकिन उसने जो कुछ कहा था वह उसे चिढ़ाने के लिए नहीं एक यथार्थ बात को पुष्ट करने के लिए ही कहा था। उसने कहा था जो स्त्री पुरुष पर अवलंबित है, उसे पुरुष की हुकूमत माननी पड़ेगी। वह मानता था कि उस अवसर पर यह बात उसे मुंह से न निकालनी चाहिए थी। अगर कहना आवश्यक भी होता तो मुलायम शब्दों में कहना था लेकिन जब एक औरत अपने अधिकारों के लिए पुरुष से लड़ती है, उसकी बराबरी का दावा करती है, तो उसे कठोर-बातें सुनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस वक्त भी वह इसलिए आया था कि पुष्पा को कायल करे और समझाए कि मुंह फेर लेने से ही किसी बात का निर्णय नहीं हो सकता। वह इस मैदान को जीत कर यहां एक झंडा गाड़ देना चाहता था, जिसमें इस विषय पर कभी विवाद न हो सके। तब से कितनी ही नई-नई युक्तियां उसके मन में आ गई थीं, मगर जब शत्रु किले के बाहर निकला ही नहीं तो उस पर हमला कैसे किया जाए।

एक उपाय है। शत्रु को बहला कर, उस पर अपने संधि-प्रेम का विश्वास जमाकर, किले से निकालना होगा।


उसने पुष्पा की ठुड्डी पकड़कर अपनी ओर फेरते हुए कहा-अगर यह बात तुम्हें इतनी लग रही है, तो मैं उसे वापस लिए लेता हूं। उसके लिए तुमसे क्षमा मांगता हूं। तुमको ईश्वर ने वह शक्ति दी है कि तुम मुझसे दस-पांच दिन बिना बोले रह सकती हो, लेकिन मुझे तो उसने वह शक्ति नहीं दी। तुम रूठ जाती हो तो जैसे मेरी नाड़ियों में रक्त का प्रवाह बंद हो जाता है। अगर वह शक्ति तुम मुझे भी प्रदान कर सको, तो मेरी और तुम्हारी बराबर की

लड़ाई होगी और मैं तुम्हें छेड़ने न आऊंगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं कर सकती हो इस अस्त्र का मुझ पर वार न करो।

पुष्पा मुस्करापड़ी। उसने अपने अस्त्र से पति को परास्त कर दिया था। जब वह दीन बनकर उससे क्षमा मांग रहा है, उसका हृदय क्यों न पिघल जाए।

संधि पत्र पर हस्ताक्षर स्वरूप पान का एक बीड़ा लगाकर संतकुमार को देती हुई बोली -अब से कभी वह बात मुंह से न निकालना। अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूं, तो तुम भी मेरे आश्रित हो। मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूं। इतना ही काम दूसरों के घरों में करूं तो अपना निबाह कर सकती हूं या नहीं बोलो।

संतकुमार ने कड़ा जवाब देने की इच्छा को रोककर कहा-बहुत अच्छी तरह।

'तब मैं जो कुछ कमाऊंगी वह मेरा होगा। यहां मैं चाहे प्राण भी दे दूं पर मेरा किसी चीज पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो।'

'कहती जाओ, मगर उसका जवाब सुनने के लिए तैयार रहो।'

'तुम्हारे पास कोई जवान नहीं है, केवल हठ धर्म है। तुम कहोगे यहां तुम्हारा जो सम्मान है, वह वहां न रहेगा वहां कोई तुम्हारी रक्षा करने वाला न होगा कोई तुम्हारे दुख-दर्द में साथ देने वाला न होगा। इसी तरह की और भी कितनी ही दलीलें तुम दे सकते हो। मगर मैंने मिस बटलर को आजीवन क्वांरी रह कर सम्मान के साथ जिंदगी काटते देखा है। उनका निजी जीवन कैसा था, यह मैं नहीं जानती। संभव है वह हिन्दू गृहिणी के आदर्श के अनुकूल न रहा हो, मगर उनकी इज्जत सभी करते थे और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी पुरुष का आश्रय लेने की कभी जरूरत नहीं हुई।'

संतकुमार मिस बटलर को जानता था। वह नगर की प्रसिद्ध लेडी डाक्टर थीं। पुष्पा के घर से उसका घराव सा हो गया था। पुष्पा के पिता डाक्टर थे। और एक पेशे के व्यक्तियों में कुछ घनिष्ठता हो ही जाती है। पुष्पा ने जो समस्या उसके सामने रख दी थी, उस पर मीठे और निरीह शब्दों से कुछ कहना उसके लिए कठिन हो रहा था। और चुप रहना उसकी पुरुषता के लिए उससे भी कठिन था।

दुविधा में पड़कर बोला-'मगर सभी स्त्रियां मिस बटलर तो नहीं हो सकतीं?' पुष्पा ने आवेश के साथ कहा-'क्यों? अगर वह डाक्टरी पढ़कर अपना व्यवसाय कर सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं कर सकती?'

'उनके समाज में और हमारे समाज में बड़ा अंतर है।'

'अर्थात् उनके समाज के पुरुष शिष्ट हैं, शीलवान हैं और हमारे समाज के पुरुष चरित्रहीन हैं, लम्पट हैं, विशेषकर जो पढ़े-लिखे हैं।'

'यह क्यों नहीं कहतीं कि उस समाज में नारियों में आत्मबल है, अपनी रक्षा करने की शक्ति है और पुरुषों को काबू में रखने की कला है।'

'हम भी तो वही आत्मबल और शक्ति प्राप्त करना चाहती हैं, लेकिन तुम लोगों केमारे जब कुछ चलने पाए। मर्यादा और आदर्श जाने किन-किन बहानों से हमें दबाने की और हमारे ऊपर अपनी हुकूमत जमाए रखने की कोशिश करते हो।'


संतकुमार ने देखा कि बहस फिर उसी मार्ग पर चल पड़ी है जो अंत में पुष्पा को असहयोग

धारण करने पर तैयार कर देता है, और इस समय वह उसे नाराज करने नहीं उसे खुश करने आया था।

बोला-'अच्छा साहब सारा दोष पुरुषों का है, अब राजी हुई। पुरुष भी हुकूमत करते-करते थक गया है। और अब कुछ दिन विश्राम करना चाहता है। तुम्हारे अधीन रहकर अगर वह इस संघर्ष से बच जाए तो वह अपना सिंहासन छोड़ने को तैयार है।'

पुष्पा ने मुसकरा कर कहा- अच्छा आज से घर में बैठो।

'बड़े शौक से बैठूंगा, मेरे लिए अच्छे-अच्छे कपड़े, अच्छी-अच्छी सवारियां ला दो। जैसे तुम कहोगी, वैसा ही करूंगा! तुम्हारी मर्जी के खिलाफ एक शब्द भी न बोलूंगा।'

'फिर तो न कहोगे कि स्त्री-पुरुष की मुहताज है, इसलिए उसे पुरुष की गुलामी करनी चाहिए?'

'कभी नहीं मगर एक शर्त पर।'

'कौन सी शर्त?'

'तुम्हारे प्रेम पर मेरा ही अधिकार रहेगा।'

'स्त्रियां तो पुरुषों से ऐसी शर्त कभी न मनवा सकीं?'

'यह उनकी दुर्बलता थी। ईश्वर ने तो उन्हें पुरुषों पर शासन करने के लिए सभी अस्त्र दे दिए थे।'

साध हो जाने पर भी पुष्पा का मन आश्वस्त न हुआ। संतकुमार का स्वभाव वह जानती थी। स्त्री पर शासन करने का भी जो संस्कार है। वह इतनी जल्द किसे बदल सकता है। ऊपर की बातों से संतकुमार उसे अपने बराबर का स्थान देते थे। लेकिन इसमें एक प्रकार का एहसान छिपा होता था। महत्व की बातों में वह लगाम अपने हाथ में रखते थे। ऐसा आदमी यकायक अपना अधिकार त्यागने पर तैयार हो जाए, इसमें कोई रहस्य अवश्य है!

बोली-नारियों ने उन शस्त्रों से अपनी रक्षा नहीं की, पुरुषों ही की रक्षा करती रहीं। यहां तक कि उनमें अपनी रक्षा करने की सामर्थ्य ही नहीं रही।

संतकुमार ने मुग्ध भाव से कहा-यही भाव मेरे मन में कई बार आया है, पुष्पा और इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर स्त्री ने पुरुष की रक्षा न की होती, तो आज दुनिया वीरान हो गई होती। उसका सारा जीवन तप और साधना का जीवन है।

तब उसने उससे अपने मंसूबे कह सुनाए। वह उन महात्माओं से अपनी मौरूसी जायदाद वापस लेना चाहता है, अगर पुष्पा अपने पिता से जिक्र करे और दस हजार रुपये भी दिला दे तो संतकुमार को दो लाख की जायदाद मिल सकती है। सिर्फ दस हजार। बगैर इतने रुपये उसके हाथ से दो लाख की जायदाद निकली जाती है। पुष्पा ने कहा-मगर वह जायदाद तो बिक चुकी है।


संतकुमार ने सिर हिलाया-बिक नहीं चुकी है, लुट चुकीहै। जो जमीन लाख-दो लाख में भी सस्ती है, वह दस हजार में कूड़ा हो गई। कोई भी समझदार आदमी ऐसा गच्चा नहीं खा सकता और अगर खा जाए तो वह अपने होश हवास में नहीं है। दादा गृहस्थी में कुशल नहीं रहे। वह तो कल्पनाओं की दुनिया में रहते थे। बदमाशों ने उन्हें चकमा दे दिया और जायदाद निकलवा दी। मेरा धर्म है कि मैं वह जायदाद वापस लूं, और तुम चाहो तो सब

कुछ हो सकता है। डाक्टर साहब के लिए दस हजार रुपये का इंतजाम कर देना कोई कठिन बात नहीं है।

पुष्पा एक मिनट तक विचार में डूबी रही। फिर संदेहभाव से बोली-'मुझे तो आशा नहीं कि दादा के पास इतने रुपये फालतू हों।'

'जरा कहो तो।'

'कहूं कैसे-क्या मैं उनका हाल जानती नहीं? उनकी डाक्टरी अच्छी चलती है, पर उनके खर्च भी तो हैं। बीरू के लिए हर महीने पांच सौ रुपए इंग्लैंड भेजने पड़ते हैं। तिलोत्तमा की पढ़ाई का खर्च भी कुछ कम नहीं। संचय करने की उनकी आदत नहीं है। मैं उन्हें संकट में नहीं डालना चाहती।'

'मैं उधार मांगता हूं। खैरात नहीं।'

'जहां इतना घनिष्ठ संबंध है। वहां उधार के माने खैरात के सिवा और कुछ नहीं। तुम रुपये न दे सके तो वह तुम्हारा क्या बना लेंगे? अदालत जा नहीं सकते, पंचायत कर नहीं सकते, लोग ताने देंगे।'

संतकुमार ने तीखेपन, से कहा-'तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं रुपये न दे सकूंगा? दुनिया हंसेगी।'

पुष्पा मुंह फेर कर बोली-'तुम्हारी जीत होना निश्चित नहीं है। और जीत भी हो जाए और तुम्हारे हाथ में रुपये भी आ जायें तो यहां कितने जमींदार ऐसे हैं, जो अपने कर्ज चुका सकते हों। रोज ही तो रियासतें कोर्ट आफ लार्ड में आया करती हैं। यह भी मान लें कि तुम किफायत से रहोगे और धन जमाकर लोगे लेकिन आदमी का स्वभाव है कि वह जिस रुपये को हजम कर सकता है, उसे हजम कर जाता है। धर्म और नीति को भूल जाना उसकी एक आम कमजोरी है।'

संत ने पुष्पा को कड़ी आंखों से देखा। पुष्पा के कहने में जो सत्य था, वह तीर की तरह निशाने पर जा बैठा। उसके मन में जो चोर छिपा बैठा था उसे पुष्पा ने पकड़ कर सामने खड़ा कर दिया था। तिलमिला कर बोला-आदमी को तुम इतनी नीच समझती हो, तुम्हारी इस मनोवृत्ति पर मुझे अचरज भी है और दुख भी। इस गए गुजरे जमाने में भी समाज पर धर्म और नीति का ही शासन है। जिस दिन संसार से धर्म और नीति का नाश हो जाएगा, उसी दिन समाज का अंत हो जाएगा।

उसने धर्म और नीति की व्यापकता पर एक लम्बा दार्शनिक व्याख्यान दे डाला।कभी किसी घर में कोई चोरी हो जाती है तो कितनी हलचल मच जाती है। क्यों? इसीलिए कि चोरी एक गैर मामूली बात है। अगर समाज चोरों का होता तो किसी का साह होना उतनी ही हलचल पैदा करता। रोगों की आज बहुत बढ़नी सुनने में आती है, लेकिन गौर से देखो तो सौ में एक आदमी से ज्यादा बीमार न होगा। अगर बीमारी आम बात होती तो तंदुरुस्तों की नुमाइश होती, आदि। पुष्पा विरक्त सी सुनती रही। उसके पास जवाब तो थे पर वह इस बहस को तूल नहीं देना चाहती थी। उसने तय कर लिया था कि वह अपने पिता से रुपये के लिए न कहेगी और किसी तर्क या प्रमाण का उस पर कोई असर न हो सकता था।

संतकुमार ने भाषण समाप्त करके जब उससे कोई जवाब न पाया तो एक क्षण के बाद बोला- 'क्या सोच रही हो? मैं तुमसे सच कहता हूं, मैं बहुत रुपये दे दूंगा।'

पुष्पा ने निश्चय भाव से कहा-'तुम्हें कहना हो जाकर खुद कहो, मैं तो नहीं लिख सकती।'

संतकुमार ने होंठ चबाकर कहा-जरा सी बात तुमसे नहीं लिखी जाती, उस पर दावा यह है कि घर पर मेरा भी अधिकार है।

पुष्पा ने जोश के साथ कहा-'मेरा अधिकार तो उसी क्षण हो गया जब मेरी गांठ तुमसे बंधी।'

संतकुमार ने गर्व के साथ कहा-ऐसा अधिकार जितनी आसानी से मिल जाता है, उतनी आसानी से छिन भी जाता है।

पुष्पा को जैसे किसी ने धक्का देकर उस विचारधारा में डाल दिया जिसमें पांव रखते उसे डर लगता था। उसने यहां आने के एक दो महीने के बाद ही संतकुमार का स्वभाव पहचान लिया था। उसके साथ निबाह करने के लिए उसे उनके इशारों की लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। उसे अपने व्यक्तित्व को उनके अस्तित्व में मिला देना पड़ेगा। वह वही सोचेगी जो वह सोचेंगे, वही करेगी जो वह करेंगे। अपनी आत्मा के विकास के लिए यहां कोई अवसर न था। उनके लिए लोक या परलोक में जो कुछ था, वह सम्पत्ति थी। यहीं से उनके जीवन को प्रेरणा मिलती थी। सम्पत्ति के मुकाबले में स्त्री या पुत्र की भी उनकी निगाह में कोई हकीकत न थी। एक चीनी की प्लेट पुष्पा के हाथ से टूट जाने पर उन्होंने उसके कान ऐंठ लिए थे। फर्श पर स्याही गिरा देने की सजा उन्होंने पंकजा से सारा फर्श धुलवा कर दी थी। पुष्पा उनके रखे रुपयों को कभी हाथ तक न लगाती थी। यह ठीक है कि वह धन को महज जमा करने की चीज न समझते थे। धन, भोग करने की वस्तु है, उनका यह सिद्धांत था। फिजूलखर्ची या लापरवाही बर्दाश्त न करते थे। उन्हें अपने सिवा किसी पर विश्वास नथा। पुष्पा ने कठोर आत्मसमर्पण के साथ इस जीवन के लिए अपने को तैयार कर लिया था। पर बार-बार यह याद दिलाया जाना कि यहां उसका कोई अधिकार नहीं है, यहां वह केवल एक लौंडी की तरह है, उसे असह्य था। अभी उस दिन इसी तरह की एक बात सुनकर उसने कई दिन खाना-पीना छोड़ दिया था। और आज तक उसने किसी तरह मन को समझा कर शांत किया था कि यह इससे आघात हुआ। इसने उसके रहे-सहे धैर्य का भी गला घोंट दिया।

संतकुमार तो उसे यह चुनौती देकर चले गए। वह वहीं बैठी सोचने लगी, अब उसको क्या करना चाहिए। इस दशा में तो वह अब नहीं रह सकती। वह जानती थी कि पिता के घर में भी उसके लिए शांति नहीं है। डाक्टर साहब भी संतकुमार को आदर्श युवक समझते थे और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना कठिन था कि संतकुमार की ओर से कोई बेजा हरकत हुई है। पुष्पा का विवाह करके उन्होंने जीवन की एक समस्या हल कर ली थी। उस पर फिर विचार करना उनके लिए अबूझ था। उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि अब कहीं निश्चिंत होकर दुनिया की सैर करें। यह समय अब निकट आता जाता था। ज्यों ही लड़का इंग्लैंड से लौटा और छोटी लड़की की शादी हुई कि वह दुनिया के बंधन से मुक्त हो जाएंगे। पुष्पा फिर उनके सिर पर पड़कर उनके जीवन के सबसे बड़े अरमान में बाधा न डालना चाहती थी। फिर उसके लिए दूसरा कौन स्थान है? कोई नहीं। तो क्या इस घर में रहकर जीवन पर्यंत अपमान सहते रहना पड़ेगा।

साधुकुमार आकर बैठ गया। पुष्पा ने चौंक कर पूछा - तुम बम्बई कब जा रहे हो?


साधु ने हिचकिचाते कहा जाना तो था कल लेकिन मेरी जाने की इच्छा नहीं होती।

आने-जाने में सैकड़ों रुपये का खर्च है। घर में रुपए नहीं है मैं किसी को सताना नहीं चाहता। बम्बई जाने की ऐसी जरूरत ही क्या है। जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों! वहां दस-बीस आदमियों का क्रिकेट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है। मैं तो नहीं जाना चाहता।

पुष्पा ने उत्तेजित किया - तुम्हारे भाई साहब तो रुपए दे रहे हैं?

साधु ने मुस्कराकर कहा - भाई साहब रुपए नहीं दे रहे हैं, मुझे दादा का गला दबाने को कह रहे हैं। मैं दादा को कष्ट नहीं देना चाहता। भाई साहब से कहना मत भाभी तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं।

पुष्पा उसकी इस नम्र सरलता पर हंस पड़ी। बाईस साल का गर्वीला युवक जिसने सत्याग्रह-संग्राम में पढ़ना छोड़ दिया, दो बार जेल हो आया, जेलर के कटु वचन सुनकर उसकी छाती पर सवार हो गयाऔर इस उद्दंडता की सजा में तीन महीने काल कोठरी में रहा वह अपने भाई से इतना डरता है, मानो वह हौवा हों। बोली - मैं तो कह दूंगी।

'तुम नहीं कह सकतीं। इतनी निर्दय नहीं हो।'

पुष्पा प्रसन्न होकर बोली - कैसे जानते हो?

'चेहरे से।'

'झूठे हो।'

'तो फिर इतना और कहे देता हूं कि आज भाई साहब ने तुम्हें भी कुछ कहा है।'

पुष्पा झेंपती हुई बोली - बिलकुल गलत। वह भला मुझे क्या कहते?

'अच्छा मेरे सिर की कसम खाओ।'

'कसम क्यों खा? तुमने मुझे कभी कसम खाते देखा है?'

'भैया ने कुछ कहा है जरूर, नहीं तुम्हारा मुंह इतना उतरा हुआ क्यों रहता। भाई साहब से कहने की हिम्मत नहीं पड़ती, वरना समझाता आप क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। जो जायदाद बिक गई उसके लिए अब दादा को कोसना और अदालत करना मुझे तो कुछ नहीं जंचता। गरीब लोग भी तो दुनिया में है ही या सब मालदार ही हैं। मैं तुमसे ईमान से कहता हूं भाभी, मैं जब कभी धनी होने की कल्पना करता हूं तो मुझे शंका होने लगती है कि न जाने मेरा मन क्या हो जाए। इतने गरीबों में धनी होना मुझे तो स्वार्थान्धता सी लगती है। मुझे तो इस दशा में भी अपने ऊपर लज्जा आती है, जब देखता हूं कि मेरे ही जैसे लोग ठोकरें खा रहे हैं। हम तो दोनों वक्त चुपड़ी हुई रोटियां और दूध और सेब-संतरे उड़ाते हैं। मगर सौ में निन्यानवे आदमी ऐसे भी हैं, जिन्हें इन पदार्थों के दर्शन भी नहीं होते। आखिर हम में क्या सुर्खाब के पर लग गए हैं?'

पुष्पा इन विचारों की न होने पर भी साधु की निष्कपट सच्चाई का आदर करती थी। बोली-तुम इतना पढ़ते तो नहीं ये विचार तुम्हारे दिमाग में कहां से आ जाते हैं?

साधु ने उठकर कहा-शायद उस जन्म में भिखारी था।

पुष्पा ने उसका हाथ पकड़कर बैठाते हुए कहा-मेरी देवरानी बेचारी गहने-कपड़े को तरस जाएगी।

'मैं अपना ब्याह ही न करूंगा।'

'मन में तो मना रहे होंगे कहीं से संदेसा आए।'

'नहीं भाभी, तुमसे झूठ नहीं कहता। शादी का तो मुझे ख्याल भी नहीं आता। जिंदगी इसी के लिए है कि किसी के काम आए। वहां सेवकों की इतनी जरूरत है, वहां कुछ लोगों को तो क्वांरा रहना चाहिए। कभी शादी करूंगा तो ऐसी लड़की से जो मेरे साथ गरीबी की जिंदगी बसर करने पर राजी हो और जो मेरे जीवन की सच्ची सहगामिनी बने।'

पुष्पा ने इस प्रतिज्ञा को भी हंसी में उड़ा दिया-पहले सभी युवक इसी तरह की कल्पना किया करते हैं। लेकिन-शादी में देर हुई तो उपद्रव मचाना शुरू कर देते हैं।

साधुकुमार ने जोश के साथ कहा-मैं उन युवकों में नहींहूं भाभी।

पुष्पा ने फिर कटाक्ष किया-तुम्हारे मन में तो बीबी(पंकजा) बसी हुई है।' तुमसे कोई बात कहो तो तुम बताने लगती हो, इसी से मैं तुम्हारे पास नहीं आता।'


'अच्छा सच कहना पंकजा जैसी बीवी पाओ तो विवाह करोगे या नहीं?' साधुकुमार उठकर चला गया। पुष्पा रोकती रही पर वह हाथ छुड़ाकर भाग गया। इस आदर्शवादी सरल प्रकृति, सुशील, सौम्य युवक से मिलकर पुष्पा का मुरझाया हुआ मन खिल उठता था। वह भीतर से जितनी भारी थी, बाहर से उतनी ही हल्की थी। संतकुमार से तो उसे अपने अधिकारों की प्रतिक्षण रक्षा करनी पड़ती थी, चौकन्ना रहना पड़ता था कि न जाने कब उसका वार हो जाए। शैव्या सदैव उस पर शासन करना चाहती थी, और एक क्षण भी न भूलती थी कि वह घर की स्वामिनी है और हरेक आदमी को उसका यह अधिकार स्वीकार करना चाहिए। देवकुमार ने सारा भार संतकुमार पर डाल कर वास्तव में शैव्या की गद्दी छीन ली थी। वह यह भूल जाती थी कि देवकुमार के स्वामी रहने पर ही वह घर की स्वामिनी रही। अब वह माने की देवी थी जो केवल अपने आशीर्वादों के बल पर ही पूज सकती है। मन का यह संदेह मिटाने के लिए वह सदैव अपने अधिकारों की परीक्षा लेती रहती थी। वह चोर किसी बीमारी की तरह उसके अंदर जड़ पकड़ चुका था और असली भोजन को न पचा सकने के कारण उसकी प्रकृति चटोरी होती जाती थी। पुष्पा उनसे बोलते डरती थी, उनके पास जाने का साहस न होता था। रही पंकजा, उसे काम करने का रोग था। उसका काम ही उसका विनोद, मनोरंजन सब कुछ था। शिकायत करना उसने सीखा ही न था। बिलकुल देवकुमार का-सा स्वभाव पाया था। कोई चार बात कह दे सिर झुकाकर सुन लेगी। मन में किसी तरह का द्वेष या मलाल न आने देगी। सबेरे से दस-ग्यारह बजे रात तक उसे दम मारने की मोहलत न थी। अगर किसी के कुरते के बटन टूट जाते हैं तो पंकजा टांकेगी। किस के कपड़े कहां रखे हैं, यह रहस्य पंकजा के सिवा और कोई न जानता था। और इतना काम करने पर भी वह पढ़ने और बेल-बूटे बनाने का समय भी न जाने कैसे निकाल लेती थी। घर में जितने तकिए थे सबों पर पंकज। की कला प्रियता के चिह्न अंकित थे। मेजों के मेजपोश कुरसियों के गद्दे, संदूकों के गिलाफ सब उसकी कलाकृतियों से रंजित थे। रेशम और मखमल के तरह-तरह के पक्षियों और फूलों के चित्र बनाकर उसने फ्रेम बना लिए थे जो दीवानखाने की शोभा बढ़ा रहे थे और उसे गाने-बजाने का शौक भी था। सितार बजा लेती थी और हारमोनियम तो उसके लिएखेल था। हां, किसी के सामने गाते-बजाते शरमाती थी। इसके साथ वह स्कूल भी जाती थी और उसका शुमार अच्छी लड़कियों में था! 1 रु. महीना उसे वजीफा मिलता था। उसके पास इतनी फुर्सत न थी कि पुष्पा के पास घड़ी-दो

घड़ी के लिए आ बैठे और हंसी मजाक करे। उसे हंसी मजाक आता भी न था। न मजाक समझती थी, न उसका जवाब देती थी। पुष्पा को अपने जीवन का भार हल्का करने के लिए साधु ही मिल जाता। पति ने तो उल्टे उस पर और अपना बोझ ही लाद दिया था।

साधु चला गया तो पुष्पा फिर उसी ख्याल में डूबी-कैसे अपने बोझ उठाए। इसीलिए तो पतिदेव उस पर यह रोब जमाते हैं। जानते हैं कि इसे चाहे जितना सताओ, कहीं जा नहीं सकती, कुछ बोल नहीं सकती। हां, उनका ख्याल ठीक है। उसे विशाल वस्तुओं से रुचि है। वह अच्छा खाना चाहती है, आराम से रहना चाहती है। एक बार वह विलास का मोह त्याग दे और त्याग करना सीख ले फिर उस पर कौन रोब जमा सकेगा फिर वह क्यों किसी से दबेगी।

शाम हो गई थी। पुष्पा खिड़की के सामने खड़ी बाहर की ओर देख रही थी। उसने देखा बीस-पच्चीस लड़कियों और स्त्रियों का एक दल एक स्वर से एक गीत गाता चला जा रहा था। किसी की देह पर साबित कपड़े तक न थे। सिर और मुंह पर गर्द जमी हुई थी। बाल रूखे हो रहे थे, जिनमें शायद महीनों से तेल न पड़ा हो। मजूरनी थीं जो दिन भर ईंट और गारा ढोकर घर लौट रही थीं। सारे दिन उन्हें धूप में तपना पड़ा होगा, मालिक की घुड़कियां और गालियां खानी पड़ी होंगी। शायद दोपहर को एक-एक मुट्ठी चबेना खाकर रह गई हों। फिर भी कितनी प्रसन्न थीं; कितनी स्वतंत्र। इनकी इस प्रसन्नता का क्या रहस्य है?

3

मि. सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं। उन्हें देख कर सभी आदमी 'आइए, आइए' करते हैं, लेकिन उनके पीठ फेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं। उनका पेशा है मुकदमे बनाना। जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं। न जाने यह कवि क्यों नहीं हुए? मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृद्धि कर सकते अपना - कुछ उपकार न कर सकते। कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिद्धियां मिल गयी थीं। शानदार बंगले में रहते थे बड़े-बड़े रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी, रोब भी था, कलम में ऐसा जादू था कि मुकदमेमें जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बड़े बड़े घाघ जन भी उसकी तह तक न पहुंच सकते। सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबद्ध होता था कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह संतकुमार के साथ के पढ़े हुए थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। संतकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमें रंगरूप भर कर जीता जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है।

नौ बजे होंगे। वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं। सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं। गोरे-चिट्टे आदमी, ऊंचा कद, एकहरा बदन, बड़े-बड़े बाल पीछे को कंघी ऐचे हुए, मूंछें साफ, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान ऐसा जान पड़ता है कोई बड़ा रईस है। संतकुमार नीची अचकन पहने फेल-कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं।

सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो। मैं कहता हूं हमारी फतेह है। ऐसी सैकड़ों नजीरें मौजूद हैं, जिसमें बेटों, पोतों ने बैनामे मंसूख कराए हैं। पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है।

संतकुमार ने दुविधा में पड़ कर कहा-लेकिन फादर को भी तो राजी करना होगा। उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा।

'उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है।'

'लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है।'

'तो उन्हें भी गोली मारो। हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग में खलल है।'

'यह साबित करना आसान नहीं है। जिसने बड़ी-बड़ी किताबें लिख डालीं; जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है; जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे?'

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा। किताब लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात। मैं तो कहता हूं जितने लेखक हैं सभी सनकी हैं-पूरे पागल जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं। अगर यह लोग अपने होश में हों तो किताबें न लिख कर दलाली करें या खोंचे लगाएं। यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा। पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, उन्निद, तपेदिक ही साथ लगता है! रुपये का जुगाड़ तुम करते जाओ बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दो। और हां, आज शाम को क्लब में जरूर आना। अभी से कैम्पेन(मुहासरा) शुरू कर देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो। यह समझ लो वह सब-जज साहब की अकेली लड़की है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है। सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते। मैं यह मरहला करनेमें तुमसे ज्यादा कुशल हूं। मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है। सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो। उस चुड़ैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ। इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो। फिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी। औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका। जो रूपवान हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देख कर कै आए वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है। उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है, मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पड़ेगी। तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आएगी। अपनी सारी कला खर्च करनी पड़ेगी।

'यह कला मैं खूब सीख चुका हूं।'

'तो आज शाम को आना क्लब में।'

'जरूर आऊंगा।'

'रुपये का प्रबंध भी करना।'

'वह तो करना ही पड़ेगा।'


इस तरह संतकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया। संतकुमार न

लम्पट था, न रसिक; मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर हंसमुख और जमीन चेहरा गोरा चिट्टा। जब सूट पहन कर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था वही तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिर जवाब। उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी मगर संसार की गति से वाकिफ थी और अपनी ऊपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ न कुछ आलोचना कर सकती थी। कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था और प्रांजल भाषा में। मिजाज में नफासत इतनी थी कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असह्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनन्द आता था और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंडापन देख कर वह भौहों से या होठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष समाज में उसकी मनोवृत्ति की ओर। उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञानथा और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देख कर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती भी; कभी गुजरियों का कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।

मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग भरी बातें सुन कर वह वैसी ही ठंडी रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और काई महत्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पा कर निराश हो जाते थे। मगर संतकुमार की रसिकता में उसे अंतर्ज्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता, जो विह्वलता देखी थी उसका यहां नाम भी न था। संतकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था सचेतता थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उनके मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी। संतकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। संतकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गयी थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के फूहड़पन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्पा को देख पाती तो संतकुमार का पक्ष ले कर उससे लड़ती।

एक दिन उसने संतकुमार से कहा-तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते?

संतकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड़ कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रह कर समाज के कानून तो मानने ही पड़ेंगे। फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है। उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने बनाया वैसी बन गयी।


'मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड़

गई हैं। मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकाल कर किसी खंदक में फेंक दें। मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं।'

संतकुमार ने अपना जादू चलते हुए देख कर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।

तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जायेगी या कोईकाम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।

संतकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती कितनी भोली है।

गंभीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी! समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देख कर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं लेकिन उससे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है। केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड़ सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई। लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों, यह दोष नहीं है।

संध्या हो गयी थी। तिब्बी ने नौकर को बुला कर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आयी। नौकर ने कुर्सियां निकाल कर रख दीं और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ।

तिब्बी ने डांट कर कहा-कुर्सियां साफ क्यों नहीं कीं? देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है? मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी, तुझे याद ही नहीं रहती। बिना जुर्माना किये तुझे याद न आयेगी।

नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पांछ कर साफ कर दीं और फिर जाने को हुआ। तिव्वी ने फिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है? मेजें रख दीं? टी टेबल क्यों नहीं लाया? चाय क्या तेरे सिर पर पियेंगे?

उसने बूढ़े नौकर के दोनों कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिलकुल गावदी है, निरा पोंगा जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है।


वह नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थी। उनका देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी, वह उसे इस घर से बांधे हुए थी और यहां अनादर, अपमान सब कुछ सह कर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उस में उसके जोड़ के थे। लेकिन- त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियां भी थीं, बहुएं भी थीं। सब उनका आदर करती थीं। बहुएं तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मनु में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबू जी कभी कुछ कहते थे तो उसका पक्ष लेकर उनसे लड़ती थी। औरयह लड़की बड़े-छोटे का जरा लिहाज नहीं करती। लोग कहते हैं, पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल! उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे? जो

लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो; उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाए? अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता। वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है।

घूरे ने टी-टेबल ला कर रख दी पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।

तिब्बी ने कहा-जा कर बैरा से कह दो दो प्याले दे जाए।

घूरे चला गया और बैरा को वह हुक्म सुना कर अपनी एकांत कुटीर में जा कर खूब रोया। आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता!

बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने प्याली संतकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं।

संतकुमार ने एक घूंट पी कर कहा-कम से कम इसका स्वांग तो करते ही हैं।

'मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं। जिसे प्यारा कहो दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाजबंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाए।'

'उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किए जाते हैं।'

तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है।

अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं, वह दिल से नहीं केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहती। बिच्छू के डंक तोड़ कर आप उसे बिलकुल निरीह बना सकते हैं लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता।

संतकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा- अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पतिव्रता होना भी लोकनिंदा का भय है, तो आप क्या कहेंगी?

तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी।

'क्यों?'

'इसलिए कि मर्दों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पतिव्रत उनके अन्दर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती हैं। उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं। बिन ब्याहा पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है। यह सारा मर्दों का अपराध है। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रहे हैं, इसीलिए न कि आप पुरुषहैं, जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता।'

संतकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड़ रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता, अगर मैं आज उसे छोड़ दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी।


तिब्बी मुस्कुराई-मेरी तरफ से आप निश्चिंत रहिए। मगर एक ही क्षण के बाद उसने

गंभीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं। मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुन कर कितना संतोष हुआ। मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े।'

'आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न स्व दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात कर। दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकूं।'

संतकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उसके मर्म पर चोट लगी है।

'उनका रास्ते पर आना असंभव है मिस त्रिवेणी। वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जाएगा।'

तिव्वी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी।

'तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बन्द कर देंगी।'

'ऐसा क्यों?'

'बहुत मुमकिन है वह आपकी सहानुभूति पा जाए और आप उसकी हिमायत करने लगें।'

'तो क्या आप चाहते हैं, मैं आपको एकतरफा डिग्री दे दूं?'

'मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं। आपसे अपनी मनोव्यथा कह कर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं। उसे मालूम हो जाए कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं, तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।'

तिब्बी ने सीधे व्यंग किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए।

संतकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मैं आपके लिए डरता हूं, अपने लिए नहीं।

तिव्वी निर्भयता से बोली-जी नहीं आप मेरे लिए न डरिए।

'मेरे जीते जी मेरे पीछे आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता।'

'आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं?'

'यह भावुकता नहीं मन के सच्चे भाव हैं।'

'मैंने सच्चे भाव वाले युवक बहुत कम देखे।'

'दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं।'

'अधिकतर शिकारी किस्म के। स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं, पुरुषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं।'

'जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं।'

'स्त्री रूप नहीं देखती। पुरुष जब गिरेगा रूप पर। इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं। शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों। मैं रूपवती हूं इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं। मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे।'

संतकुमार ने धड़कते हुए मनसे कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं?

तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं।

संतकुमार ने माथा झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है!

'आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती। आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं।'

'यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं।'

मैं रहस्य नहीं हूं। मैं तो साफ कहती हूं, मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं जो मेरे हृदय में सोए हुए प्रेम को जगा दे। हां, वह बहुत नीचे गहराई में है और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो। आपमें मैंने कभी उसके लिए बेचैनी नहीं पायी। मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है। और उससे ऊब गई हूं। अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं, जहां त्याग है रुदन है, उत्सर्ग है। संभव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाए लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी ऊंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जानी वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए। श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है, उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं। बाबूजी को एक हजार रुपये अपने छोटे से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे काम- धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है? मगर यह सब समझ कर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है। इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है। और मेरे मिज़ाज में अमीरी कितनी है, यह भी आपने देखा होगा। मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाए तो मैं बावली हो जाती हूं। बुद्धि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे शराबी बार-बार हराम कहने पर शराब नहीं छोड़ सकता, वही दशा मेरी है। उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्रायः चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता था क्योंकि शंका होती थी कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फब्तियां कसने लगेगी। पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है। उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं। मुख पर एक निश्चित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। संतकुमार ने देखा उसका संयम फिसलता जा रहा है। जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देखपाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला-कितनी ही बार। बिलकुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं जितना समझता था।

तिब्बी प्रसन्न होकर बोली- आपने मुझे कभी बताया नहीं।

'आप भी तो आज ही खुली हैं।'

'मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं, तो उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए। मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।'

संतकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्म भरी आंखों से देखा।


तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़कर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं। मुझे

ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं। मुझे बार-बार खटकता है, अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता।

और जैसे वह आज संतकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती। मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी, वह यकायक मिल गया है।

संतकुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी!

'अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें?'

इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए संतकुमार का हृदय कांप उठा।

'कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है।'

'मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं। देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं। जिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो सकता है, वह थोड़े से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुईं है।'

संतकुमार ने उतरते हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है। और उठ खड़े हुए। यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो।

तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न?

'आज आज्ञा दीजिए फिर कभी आऊंगा।'

'कब आइएगा?'

'जल्दी ही आऊंगा।'

'काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।'

संतकुमार बरामदे से कूद कर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर थी किसी को कुछ समझती न थी, न कोई उससे प्रेम का स्वांग भर कर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारीआसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में एक कोमल, सहमा हुआ विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था, उस कोमल भाग के स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी सरल. विश्वासमयी कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से संतकुमार ने वह आसन पा लिया था और अब जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है; मानो वह मेस्मराइज हो। अब संतकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता। अभागिनी पुष्पा इस सत्य पुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बन कर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है। और इतने पर भी संतकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कौन सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे!

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